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लाचार व्यक्ति

सड़क के चौराहे पर एकतरफ थी बहुत भीड़-भार वंही दूसरी तरफ कोने में खड़ा था एक व्यक्ति लाचार खुद को छिपाता हुआ भीड़ से खुद को बचाता हुआ। मैं बढ़ा उस भीड़ की तरफ अपनी जिज्ञासा लिए जायजा लेने हालात का आखिर ये भीड़ कैसी झगड़ा है किस बात का अचानक उस भीड़ से निकला एक व्यक्ति ये कहते ' ये धरती हमारी है, मारो उसे जो बिहारी है '। मैं छुब्द था देखकर इन लोगों की हंसी को दूसरी और कोने में खड़े उस शख्स की बेबसी को खुद को बचाने की जद्दोजहद में घिरा था वो इंसान क्या वाकई ये लोग ले लेंगे उसकी जान। पर क्यों हो रहा है कुछ लोगों के साथ ये व्यवहार क्या सिर्फ इसलिए की उनकी जन्म भूमि है बिहार । बहुत ही बेहुदे हैं वो लोग जो पहुंचा रहे हैं इसी देश के निवासी को चोट क्या अपने ही देश में रहने का इन्हें हक नहीं है क्या भारत बिहार का राज्य नहीं है ? बहुत शर्मनाक है ये जो इस देश के रहने वालों पर इस तरह अत्याचार हो और देश की सरकार चुपचाप बैठी लाचार हो। यही सरकार बांग्लादेशियों को देश की नागरिकता दिलाती है इनके विषय पर शोर मचाती है लेकिन अपनों के वक्त में गूंगी हो जाती ह

मैं बेटी हूं...

न मैं दुनिया में आई थी, न अपनी आंखें खोल पाई थी फिर भी मृत्यु शैय्या पर लेटी हूँ क्यों, क्योंकि मैं बेटी हूं? जबकि उत्तम कर्म मेरा है फिर क्यों मुश्किल जन्म मेरा है वो जो मां की गोदी में लेटा है इसलिए की वो बेटा है? दुख जो मां-बाप को देता है और नहीं कोई, वो बेटा है सुख मां-बाप को जो पहुंचाती जन्म नहीं है वो ले पाती। क्यों अब भी अभिशाप है बेटी क्यों आखिर मां जन्म न देती खुशी मनातें हैं सब लोग जब जन्म लेता है बेटा और जन्म जो ले ले बेटी पिता कंही उदास है लेटा।

डीडीए फ्लैट्स

आजकल हर तरफ है दिल्ली में डीडीए फ्लैट्स का शोर हर कोई फ्लैट्स खरीदने के लिए कर रहा है जोड़-तोड़ कोई निकाल रहा है अपनी जिन्दगी भर की कमाई तो किसी ने लोन के लिए है अर्जी लगाई हर किसी को है इंतजार आखिर कब निकलेगा ड्रॉ सिंगल ही सही लेकिन अपना एक घर हो हर कोई देख रहा है खुली आंखों से सपना हे भगवान इनके सपनो को बचाए रखना क्या भ्रष्ट अफसरों से बच पाएगा सपना इनका वो अफसर जिन्हें कोई परवाह नहीं किसी के जीने मरने से वो क्या करेंगे इनके सपनों की परवाह जिन्हें सिर्फ मतलब है अपनी जेब गर्म करने से। पता नहीं क्या होगा इसका परिणाम लेकिन तय है रंगीन होगी अफसरों की शाम हो सकता है सामने आए एक और घोटाला और निकल जाए लाखों लोगों के सपनो का दिवाला । घोटाला सामने आते ही सरकार गंभीरता दिखाएगी मामले की जांच तेजी से कराएगी कुछ दिन बाद तेजी से हो रही जांच डी-रेल हो जाएगी बड़ी मछलियां आजाद घूमेंगी और छोटी को जेल जाएगी।

क्या हुआ जो प्रिय तुम मेरी नहीं

क्या हुआ जो प्रिय तुम मेरी नहीं पर मैं तो सिर्फ तुम्हारा हूं। तुम न अपनाओ गिला नहीं इंसान मैं बड़ा ही प्यारा हूं समझूंगा की तुम लहरें हो और मैं सिर्फ किनारा हूं क्या हुआ जो प्रिय तुम मेरी नहीं पर मैं तो सिर्फ तुम्हारा हूं। जो दे न सकी तुम हाथ मुझे तो कम से कम कुछ साथ ही दो जो बन न सकी जीवन मेरी तो जीने का अहसास ही दो क्या हुआ जो प्रिय तुम मेरी नहीं पर मैं तो सिर्फ तुम्हारा हूं। हृदय रहा मेरा पाक सदा तुम्हें पाने की कभी चाह न की बेशक कितने ही कष्ट सहे पर मूंह से कभी भी आह न की क्या हुआ जो प्रिय तुम मेरी नहीं पर मैं तो सिर्फ तुम्हारा हूं। दुःख मैंने तुमको दिए बहुत हो सके तो करना माफ प्रिय मेरी भी कुछ मजबूरी थी वरना है दिल मेरा साफ प्रिय क्या हुआ जो प्रिय तुम मेरी नहीं पर मैं तो सिर्फ तुम्हारा हूं। मैंने माना है लहर तुम्हें और खुद को माना किनारा है मिलती रहना तुम कभी-कभी तुम बिन न कोई सहारा है क्या हुआ जो प्रिय तुम मेरी नहीं पर मैं तो सिर्फ तुम्हारा हूं। संभव ही नहीं पाना तुमको मैं योग्य तुम्हारे हूं ही नहीं मैं बदबख्त बहुत हूं प्रिय मैं तो खुशियो

मैं भारत हूं

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मैं भारत हूं लोकतंत्र की सबसे बड़ी इमारत हूं धर्मनिरपेक्षता का किला हूं कई विविधताओं से मिला हूं। मेरी ऊंचाई विवादास्पद है क्योंकि यंहा की राजनीती हास्यास्पद है अब नहीं रहा मैं लोकतंत्र बन गया हूं अब मैं गन-तंत्र। आज मेरे अन्दर अजब सा शोर है मुझे बनाने वाला कई नेता चोर है बन गया हूं आज मैं थीएटर जहां बैठा है गुंडा और फ़िल्मी एक्टर। मैं बन गया हूं राजनीती के खेल का मैदान जिसमे खेलने वाला हर कोई है बेईमान हर कोई अपने स्वार्थ के लिए खेलता है यंहा सवाल पूछने के पैसे वसूलता है। मेरे मन में है आज एक भयानक सा डर मुझे गैरों से ज्यादा है अपनों से डर मारना चाहा जिसने मुझे नोट के लिए मेरे रखवालों ने उसे छोड़ना चाहा वोट के लिए। मुझे बना दिया है डब्ल्यूडब्ल्यूई का रिंग जहां नेता आपस में करते हैं फाइटिंग अब नहीं यंहा देश के हित की बात होती है न जाने कितनी बार संसद की कार्यवाही बर्खास्त होती है। मेरी करुणा को नितेश ने अपनी कविता में उतरा है जागो भारत के लोगों मुझे तुम्हारा ही सहारा है डूब रहा हूं मैं मुझे किनारा चाहिए बचा लो मुझे गिरने से मुझे सहारा चाहिए

मेरी मां

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उस रात चैन से न सोई थी मां मुझे विदा करते वक्त रोई थी मां अक्सर मेरी आंख भर आती है जब भी मां मुझे याद आती है निकला था मजबूरी में घर छोड़ कर मैं पैसा कमाने बीमार पिता की चिंता और मां की लाचारगी मिटाने जब भी मेरी फोन पर मां से बात होती है घर की परेशानियों को लेकर मां उदास होती है अच्छा नहीं लगता है मां का यूं उदास होना सबसे नजरें बचाकर घर के किसी कोने में रोना आज भी कोई कमी नहीं आई है मां के प्यार में तरसती हैं उसकी नाम आंखें मेरे आने के इंतजार में जब जाए मिलने मां से तो मिलना हंस कर नितेश वरना मां सोचेगी की परदेश में बेटा खुश नहीं है अब तो बस एक ही हसरत है कि बेटा होने का फर्ज निभाऊं मैं कमाकर जल्द ही ढेर सा पैसा घर का कर्ज उतारूं मैं।

मोबाइल की चाहत

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हां एक मोबाइल चाहिए मुझे मोबाइल की कमी खूब खलती है तब तकलीफ होती है मुझे जब मोबाइल की घंटी बजती है बिना मोबाइल कॉलेज जाना अच्छा नहीं लगता है कॉलेज में हर कोई मोबाइल से बात करता है इसी कारण लड़कियों से मैं दोस्ती नहीं करता हूं बहुत आता है क्रोध जब अपने दोस्तों से पीसीओ से बात करता हूं नाम तो मेरा 'नितेश' है पर नित-ऐश नहीं है मोबाइल ले तो मैं भी लूं पर जेब में कैश नहीं है हर महीने पिता जी भेजते हैं पांच सौ रुपये मोबाइल की चाहत में अब इन पैसों में ही बचत करता हूं अब चेहरे पर मेरे आती है स्माइल कि अगले साल मैं निश्चय ही ले लूंगा मोबाइल।

खुशी भी और गम भी

बहुत लंबे समय से मैं कुछ लिख नहीं पा रहा था। दरअसल पिछले दो-तीन महीनों से मैं अपने भविष्य और करियर बनाने की जद्दोजहद में लगा हुआ था। दो महीने अमर उजाला में इन्टर्न किया। इन्टर्न के दौरान ही टेस्ट दिया जिसमे पास भी हुआ, पास होने की खुशी भी हुई और थोड़ी निराशा भी। दरअसल अनुवाद में एक छोटी सी गलती की वजह से मुझे जूनियर सब-एडिटर से ट्रेनी सब-एडिटर बना दिया गया। पहले तो इस बात से निराशा हुई। इसके बाद ये जान कर कि मुझे अलीगढ़ भेजा जा रहा है, एक बार फिर निराशा हुई। बचपन से जिस दिल्ली में रहा, जिस दिल्ली में बड़ा हुआ, जिस दिल्ली में लोग दूसरे शहरों से आते हैं मुझे उसी शहर को छोड़कर जाना था, निराशा थी लेकिन करियर को ध्यान में रखकर मैं जॉइन करने 20 अप्रैल 2010 को अलीगढ़ आ गया। किताबों में पढ़ा था अलीगढ के बारे में, यहां के अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के बारे में। किस्मत ने इस शहर में रहने का मौका भी दिया। यहां आए हुए अब मुझे दो महीने से अधिक हो चुके हैं लेकिन आज भी मैं यहां अपने आपको असहज महसूस कर रहा हूं। यहां मुझे बहुत ही परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है। लोग जिसे तालीम और तहजीब का शहर कहते