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जून, 2010 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

मेरी मां

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उस रात चैन से न सोई थी मां मुझे विदा करते वक्त रोई थी मां अक्सर मेरी आंख भर आती है जब भी मां मुझे याद आती है निकला था मजबूरी में घर छोड़ कर मैं पैसा कमाने बीमार पिता की चिंता और मां की लाचारगी मिटाने जब भी मेरी फोन पर मां से बात होती है घर की परेशानियों को लेकर मां उदास होती है अच्छा नहीं लगता है मां का यूं उदास होना सबसे नजरें बचाकर घर के किसी कोने में रोना आज भी कोई कमी नहीं आई है मां के प्यार में तरसती हैं उसकी नाम आंखें मेरे आने के इंतजार में जब जाए मिलने मां से तो मिलना हंस कर नितेश वरना मां सोचेगी की परदेश में बेटा खुश नहीं है अब तो बस एक ही हसरत है कि बेटा होने का फर्ज निभाऊं मैं कमाकर जल्द ही ढेर सा पैसा घर का कर्ज उतारूं मैं।

मोबाइल की चाहत

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हां एक मोबाइल चाहिए मुझे मोबाइल की कमी खूब खलती है तब तकलीफ होती है मुझे जब मोबाइल की घंटी बजती है बिना मोबाइल कॉलेज जाना अच्छा नहीं लगता है कॉलेज में हर कोई मोबाइल से बात करता है इसी कारण लड़कियों से मैं दोस्ती नहीं करता हूं बहुत आता है क्रोध जब अपने दोस्तों से पीसीओ से बात करता हूं नाम तो मेरा 'नितेश' है पर नित-ऐश नहीं है मोबाइल ले तो मैं भी लूं पर जेब में कैश नहीं है हर महीने पिता जी भेजते हैं पांच सौ रुपये मोबाइल की चाहत में अब इन पैसों में ही बचत करता हूं अब चेहरे पर मेरे आती है स्माइल कि अगले साल मैं निश्चय ही ले लूंगा मोबाइल।

खुशी भी और गम भी

बहुत लंबे समय से मैं कुछ लिख नहीं पा रहा था। दरअसल पिछले दो-तीन महीनों से मैं अपने भविष्य और करियर बनाने की जद्दोजहद में लगा हुआ था। दो महीने अमर उजाला में इन्टर्न किया। इन्टर्न के दौरान ही टेस्ट दिया जिसमे पास भी हुआ, पास होने की खुशी भी हुई और थोड़ी निराशा भी। दरअसल अनुवाद में एक छोटी सी गलती की वजह से मुझे जूनियर सब-एडिटर से ट्रेनी सब-एडिटर बना दिया गया। पहले तो इस बात से निराशा हुई। इसके बाद ये जान कर कि मुझे अलीगढ़ भेजा जा रहा है, एक बार फिर निराशा हुई। बचपन से जिस दिल्ली में रहा, जिस दिल्ली में बड़ा हुआ, जिस दिल्ली में लोग दूसरे शहरों से आते हैं मुझे उसी शहर को छोड़कर जाना था, निराशा थी लेकिन करियर को ध्यान में रखकर मैं जॉइन करने 20 अप्रैल 2010 को अलीगढ़ आ गया। किताबों में पढ़ा था अलीगढ के बारे में, यहां के अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के बारे में। किस्मत ने इस शहर में रहने का मौका भी दिया। यहां आए हुए अब मुझे दो महीने से अधिक हो चुके हैं लेकिन आज भी मैं यहां अपने आपको असहज महसूस कर रहा हूं। यहां मुझे बहुत ही परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है। लोग जिसे तालीम और तहजीब का शहर कहते